पृथ्वी पर जीव जातियों का निर्माण कैसे हुआ ? जैव विकास के सिद्धान्त क्या हैं [ Theory Of Organic Evolution ] Various info Studytoper

Ashok Nayak
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पृथ्वी पर जीव जातियों का निर्माण कैसे हुआ ? जैव विकास के सिद्धान्त क्या हैं [ Theory Of Organic Evolution ]

 वर्तमान में यह सर्वमान्य विचारधारा है कि ' जीवन की उत्पत्ति ' करीब तीन अरब वर्ष पूर्व हुई थी। जैव - उत्पत्ति के समय जीवन की अवस्था वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त ही साधारण एवं अविकसित थी । धीरे धीरे जैविक संरचनाओं में समय के साथ क्रमशः उत्तरोत्तर विविधता एवं जटिलता आती गई । वस्तुतः जैव या कार्बनिक विकास ( Organic Evolution ) के द्वारा यह प्रमाणित होता है कि हमारी पृथ्वी पर आदिपूर्वज ( Ancestral ) जातियों से ही , उद्विकास के फलस्वरूप नवीन एवं जटिल जीव - जातियों का निर्माण हुआ है और वर्तमान में भी यह क्रम जारी है । 19 वीं सदी में जैव - विकास के संदर्भ में प्रस्तुत की गई विस्तृत व्याख्या एवं सिद्धांत में से तीन को सर्वोपरि स्थान दिया गया है - 

  1. लैमार्कवाद ( Lamarckism ) , 
  2. डार्विनवाद ( Darwinism ) ,
  3. उत्परिवर्तनवाद ( Mutation Theory ) 

आइये इन तीनो सिद्धान्तों के बारे में जानते हैं।

Table of contents(TOC)

लैमार्कवाद सिद्धांत क्या है - What is lamarkism theory

फ्रांसीसी जीव - वैज्ञानिक लैमार्क ने जैवविकास के संदर्भ में प्रथम परिकल्पना सन् 1809 में अपनी पुस्तक 'फिलॉसफी जूलोगीक' ( Philosophie Zoologique ) में प्रस्तुत किया । इसे लैमार्क का सिद्धांत या उपार्जित लक्षणों की वंशागति सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है । 


उपार्जित लक्षणों की वंशागति सिद्धांत ( Theory of Inheritance of Acquired Characters )

जीन बैप्टिस्टे डी लैमार्क के अनुसार जन्तुओं एवं पौधों में नई जातियों का उद्भव जैविक - विकास के फलस्वरूप होता है । उन्होंने व्याख्या की कि जीवों ( पौधों एवं जन्तुओं ) की जीवन - रीतियों , आचरण , स्वभाव इत्यादि पर वातावरण एवं उसके परिवर्तनों का सीधा प्रभाव पड़ता है जिसके फलस्वरूप शरीर का आकार - प्रकार , रंग , विकास आदि प्रभावित होते हैं । इसका सीधा प्रभाव अंगों के उपयोग पर भी पड़ता है । वातावरण के अनुसार कुछ अंगों का अधिक एवं कुछ अंगों का उपयोग कम होता है । वातावरणीय परिवर्तनों के कारण जीवों में विभिन्न अंगों के उपयोग में वृद्धि एवं ह्रास के फलस्वरूप अधिक उपयोग में आने वाले अंगों का विकास अधिक एवं कम उपयोग में आने वाले अंगों का विकास कम होता है । इस धारणा के कारण लैमार्कवाद को 'अंगों के कम या अधिक उपयोग का सिद्धांत' ( Theory of Use and Disuse of Organs ) भी कहते हैं ।

वस्तुतः जीवों के जीवनकाल में , वातावरणीय प्रभाव से या अंगों के कम या अधिकाधिक उपयोग के कारण शरीर में जो भी परिवर्तन होते हैं इन्हें उपार्जित लक्षण कहते हैं । ये वंशागत होने के कारण संतानों में पीढ़ी - दर - पीढ़ी दृष्टिगोचर होते हैं और अन्ततोगत्वा सन्तानें अपने पूर्वजों से काफी भिन्न हो जाती हैं । इस तरह नई - नई जातियों का निर्माण हो जाता है । इस धारणा को लैमार्कवाद या उपार्जित लक्षणों की वंशागति सिद्धांत ( Theory of Inheritance of Acquired Characters ) कहते हैं । लैमार्क की इस अवधारणा को क्रमबद्ध ढंग से निम्न प्रकार से संक्षेप में व्यक्त किया जा सकता है।


● वातावरण में अचानक , लगातार होने वाले परिवर्तनों के कारण जीवों में नई आवश्यकताएं उत्पन्न होती हैं ।

● नई आदतें , नई आवश्यकताओं के कारण उत्पन्न होती हैं ।

● कुछ अंगों का उपयोग तथा कुछ अंगों का अनुपयोग नई आदतों को विकसित करता है ।

● अंगों के अनुपयोग - उपयोग के कारण जीवों की शारीरिक रचनाओं में कुछ परिवर्तन होता है जिसके फलस्वरूप उपार्जित लक्षण बनते हैं ।

● उपार्जित लक्षणों की वंशागति होती है ।

● उपार्जित लक्षणों की वंशागति के परिणामस्वरूप नई जातियाँ उत्पन्न होती हैं ।

लैमार्कवाद की आलोचना ( Criticism of Lamarckism )

एक जर्मन जीव वैज्ञानिक वीजमान ( Weismann ) ने अपने एक प्रयोग के आधार पर लैमार्कवाद की तीव्र आलोचना की । वे लगभग 20-22 पीढ़ियों तक चूहों की पूँछ काटते रहे , लेकिन नई सन्तानों में पूँछ समाप्त नहीं हुई , यहाँ तक कि उसकी लम्बाई भी नहीं घटी । इस तरह उन्होंने लैमार्क के उपार्जित लक्षणों की वंशागति सिद्धांत को अप्रमाणित कर दिया । इसके पश्चात नव-लेमार्क वाद सामने आया।

नव - लैमार्कवाद ( Neolamarckism ) 

वस्तुतः वीजमान के सिद्धांत के आधार पर ही नव - लैमार्कवाद को सैद्धांतिक आधार प्रदान किया गया । वीजमान ने 1886 ई . में 'जननद्रव्य की निरंतरता का सिद्धांत' प्रस्तुत किया जिसके अनुसार , गुणसूत्रों में स्थित जीन्स ( Genes ) को परिवर्तित कर देने वाले परिवर्तन ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में वंशागत हो सकते हैं । कुछ वैज्ञानिकों ने इसी भूमिका में इसे नया रूप दिया , जिसे नव - लैमार्कवाद कहते हैं । 

उनके अनुसार वातावरणीय परिवर्तनों के फलस्वरूप जीवों के शरीर में कुछ भौतिक या रासायनिक परिवर्तन होते हैं , जो जननद्रव्य के जीन्स को प्रभावित करते हैं । ऐसे उपार्जित लक्षण वंशागत होकर संतानों में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं । इन्हें आनुवंशिक परिवर्तन ( Genetic Changes ) कहते हैं ।


डार्विनवाद क्या है ? What is darwinism

जैव - विकास परिकल्पना के संदर्भ में दूसरा सिद्धांत ' डार्विनवाद ' के रूप में जाना जाता है । इस सिद्धांत को दो अंग्रेज वैज्ञानिकों - आल्फ्रेड रसेल वैलेस ( Alfred Russel Wallace ) तथा डार्विन ने मिलकर प्रतिपादित किया था । दोनों वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से कार्य कर समान निष्कर्षों को निकाला था । जो इसप्रकार हैं -

जीवन - संघर्ष -- डार्विन ने अनेक जीव - जन्तुओं , पौधों , चट्टानों एवं जीवाश्मों को एकत्र कर उसका अध्ययन किया । इन सारे संकलनों के विस्तृत सर्वेक्षण एवं अध्ययन के पश्चात् उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि प्रत्येक जीव को , अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए , दूसरे जीवों से संघर्ष करना पड़ता है । इसे जीवन संघर्ष ( Stru ggle for existence ) कहते हैं । प्रत्येक जीव के लिए यह भ्रूणावस्था से प्रारम्भ होकर जीवनपर्यन्त चलता रहता है ।


प्राकृतिक चयन का सिद्धांत ( Theory of Natural Selection ) संघर्ष में प्रत्येक जीव - जाति के सदस्यों की विभिन्नताओं का बहुत महत्व होता है । फलस्वरूप डार्विन ने निष्कर्ष निकाला कि जिन सदस्यों की अधिकांश विभिन्नताएं वातावरण के अनुकूल होती हैं , वे जीवन संघर्ष में सफल होते हैं । दूसरी ओर वे सदस्य , जिनकी अधिकांश विभिन्नताएं वातावरणीय दशाओं के अनुसार अनुपयोगी होती हैं , वे किसी - न - किसी अवस्था में नष्ट हो जाते हैं । जीवन संघर्ष में सफल सदस्य अधिक समय तक जीवित रहते हैं और अपनी वंशानुक्रम ( Inheritance ) को जारी रखने में योगदान देते हैं । इसी को एक अंग्रेज दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर ( Herbert Spencer ) ने सामाजिक विकास के संदर्भ में 'योग्यतम की अतिजीविता' ( Survival of Fittest ) तथा इसी को जैव - विकास के संदर्भ में डार्विन ने 'प्राकृतिक चयन' ( Natural Selection ) कहा । इस प्रकार जीवन संघर्ष में सफल सदस्यों की वंशागति बढ़ने से प्रत्येक पीढी के सदस्य अपने पूर्वजों से भिन्न हो जाते हैं ।

यहीं विभिन्नता हजारों लाखों वर्षों के बाद ( नई और पुरानी पीढ़ी के सदस्यों में अधिक अन्तर होने के कारण ) नई जातियों का निर्माण करती है । उन्होंने कहा कि प्रकृति भी इसी प्रकार चुनाव के द्वारा सफल सदस्यों को प्रोत्साहित कर नई जातियों की उत्पत्ति करती है । इसीलिए , डार्विनवाद प्राकृतिक ( Theory of Natural Selection ) के रूप में भी जाना जाता है । सन् 1858 में डार्विन एवं वैलेस ने अपने कार्यों को संयुक्त रूप में 'प्राकृतिक चयनवाद' के नाम से प्रकाशित किया । सन् 1959 में डार्विन ने इस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या अपनी पुस्तक — 'प्राकृतिक चुनाव द्वारा जातियों की उत्पत्ति' ( On the Origin of Species by Means of Natural Selection on Preservation of favoured Races in The Struggle for Life ) में की है।


डार्विनवाद की आलोचना - Criticism of darwinism

● डार्विन ने विकासवाद को आनुवंशिकता के आधार पर नहीं समझाया था ।

● डार्विनवाद के अनुसार नई जातियों की उत्पत्ति के लिए विभिन्नताएं उत्तरदायी थीं , लेकिन वैज्ञानिकों के मतानुसार छोटी - छोटी भिन्नताओं से नई जातियों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है ।

● वैज्ञानिकों ने डार्विन के लिंग चयनवाद को भी गलत ठहराया है 

● वंशागत लक्षणों वाले जीव जब एक , दूसरे ऐसे जीवों के साथ मैथुन करते हैं , जिनमें ये लक्षण नहीं होते , तो इन दोनों के मिलन से लक्षणों का प्रभाव कम नहीं होता है । डार्विन इसकी व्याख्या नहीं कर सके ।

● प्रकृतिवरणवाद ने किसी अंग के विशिष्टिकरण को नहीं बताया , जिसके कारण कुछ जातियां नष्ट हो गई ।


नव - डार्विनवाद या आधुनिक सांश्लेषिकवाद की परिकल्पना ( Neo - Darwinism or Modern Synthetic Theory )

 नव - डार्विनवाद या सांशलेषिकवाद के अनुसार निम्नलिखित प्रक्रमों की पारस्परिक क्रियाओ का परिणाम है -

जीन उत्परिवर्तन ( Gene Muation ) 

जीन के सीएनए ( DNA ) अणु में न्यूक्लियोटाइडस ( Nucleotides ) की सख्या अथवा विन्यास के क्रम में आने वाले उन परिवर्तनों को जीन उत्परिवर्तन कहते हैं जो सामान्य जीन की अभिव्यक्ति में परिवर्तन करते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं कि उत्परिवर्तन द्वारा जीवों के जीन ( Gene ) में परिवर्तन पुनस्थापित किए जा सकते हैं ।

गुणसूत्रों की संरचना एवं संख्या परिवर्तन द्वारा विभिन्नताएँ ( Variation due to change in structure and number of Chromosome ) 

गुणसूत्रों पर आलग्न जीनों की संख्या अथवा विन्यास के परिवर्तन द्वारा गुणसूत्रों की संरचना में परिवर्तन आ जाते हैं , जिसे गुणसूत्र विपथन ( Chromo somal aberration ) कहते हैं ।

आनुवंशिक पुनर्योजन ( Genetic recombination ) लैंगिक जनन ( Sexual reproduction ) की क्रिया में युग्मक निर्माण के समय अर्धसूत्री ( Reduction division , Meiosis ) होता है । अलग होते समय गुणसूत्रों में पारस्परिक जीन विनिमय ( Crossing over ) के फलस्वरूप नए जीन विन्यास बनते हैं जिनसे जीवों में विभिन्नताएं उत्पन्न होती हैं । संकरण ( Hybridization ) द्वारा भी जीनों का पुनर्योजन होता है ।

 पृथक्करण ( Isolation ) - एक ही जाति की विभिन्न समष्टियाँ ( Populations ) जब भौगोलिक कारणों से पृथक हो जाती हैं , तो उनकी जीनी संरचना में पर्यावरण के अनुरूप तथा जीन उत्परिवर्तन , गुणसूत्र विपथन तथा बहुगुणिता द्वारा नई विभिन्नताएं संकलित होने लगती हैं , जो पीढ़ी - दर - पीढ़ी बढती ही जाती हैं 


उत्परिवर्तनवाद क्या है Mutation Theory 

हॉलैण्ड के पादप शास्त्री ह्यूगो डी . व्रीज ( Hugo de Vries ) ने सन् 1901 में नई जीव - जातियों के उत्पत्ति के संदर्भ में एक नया ' उत्परिवर्तन सिद्धांत ' प्रस्तुत किया , जिसे नव - डार्विनवाद ( Neo - Darwinism ) के रूप में भी जाना जाता है ।

डी . वीज के सिद्धांत के अनुसार - नई जीव - जातियों की उत्पत्ति जातीय लक्षणों में क्रमिक विकास व अस्थिर विभिन्नताओं के कारण नहीं होती , बल्कि एक ही बार में स्पष्ट एवं स्थायी ( अर्थात् वंशागत ) आकस्मिक परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है । जाति का वह सदस्य जिसमें पहली बार उत्परिवर्तित लक्षण दृष्टि गोचर होता है , उत्परिवर्तक ( Mutant ) कहलाता है ।

उत्परिवर्तन में अनिश्चितता होने के कारण यह उत्परिवर्तन के लिए लाभदायक , निरर्थक या हानिकारक हो सकते हैं । जाति के विभिन्न सदस्यों में विभिन्न प्रकार के उत्परिवर्तन सम्भव हैं । फलस्वरूप एक पूर्वज जाति से एक साथ नई जातियों की उत्पत्ति हो जाती है ।

पुनरावर्तन सिद्धांत क्या है ( Recapitulation )

जर्मन वैज्ञानिक अर्नेस्ट हैकल ( Ernst Haeckel , 1811 ) ने उच्च प्राणियों के भ्रूणीय परिवर्धन एवं उनके पूर्वजों के विकासीय इतिहास में समानता के आधार पर पुनरावर्तन सिद्धांत ( Recapitulation theory ) या जाति - आवर्तन सिद्धांत ( Bio genetic law ) प्रस्तुत किया । इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक जीव अपने भ्रूणीय परिवर्धन में अपनी जाति के जातीय विकास की इतिहास की पुनरावृत्ति करता है ( Onto geny recapitulates phologeny ) ।

इस सिद्धांत की मुख्य विशेषता यह है कि किसी जीव की भ्रूणीय अवस्थाएं उनके पूर्वजों की व्यस्क अवस्थाओं के समान होती है ।

इसी प्रकार विभिन्न कशेरुकियों ( Vertebrates ) के भ्रूणों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उच्च कशेरुकियों के भ्रूण निम्न वर्गों के वयस्क जन्तुओं के समान होते हैं । जैसे — मेढक का टैडपोल लार्वा ( Larva ) मछली के समान होता है । 

इससे यह प्रमाणित होता है कि प्रारम्भ में समस्त कशेरुकियों का विकास मछली या मछली के समान पूर्वज से हुआ है । इस सिद्धांत के विपक्ष में निम्नलिखित आपत्तियाँ हैं 

( i ) हैकल ( Haeckel ) ने अपने पुनरावर्तन सिद्धांत में भ्रूणों की अपने वयस्क पूर्वजों से समानता पर विशेष जोर दिया है , किन्तु वाद के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि सम्बन्धित जातियों की भूणावस्था में तो समानता होती है , किन्तु किसी जीव के भ्रूण एवं उसके पूर्वज वयस्क में ऐसी कोई समानता नहीं होती ।

( ii ) भ्रूणों को वर्धन के समय उग्र वातावरण का सामना करना पड़ता है तथा इसके परिवर्धन में रूपान्तरण एवं अनुकूलन दोनों ही पाए जाते हैं ।



जैव - विकास की क्रियाविधि ( Mechanism of Evolution )

लैमार्क डार्विन एवं डी वीज तीनों वैज्ञानिकों ने जैव विकास के लिए सजातीय सदस्यों की विभिन्नताओं अथवा वंशागत विभिन्नताओं को ही उत्तरदायी ठहराया है । वंशागत विभिन्नता ही जैव - विकास की क्रियाविधि का आधार बन सकती है ।

वस्तुतः आनुवंशिक लक्षणों के द्वारा ही जैव - विकास होता है , क्योंकि इनसे अनुकूलन की क्षमता ( जीव , परिवर्तनशील वातावरणीय दशाओं या जीवन - रीतियों के अनुसार , अपने भौतिक या रासायनिक संघटन में परिवर्तन कर लेते हैं ) बढ़ाते हैं , प्राकृतिक चयन के फलस्वरूप वंशागत अधिकाधिक प्रसार का मौका मिलता है और इस प्रकार ये ही जैव - विकास का आधार बनते हैं ।

विभिन्नताएँ ( Variations ) — एक ही जाति के विभिन्न सदस्यों के लक्षणों में जो भी अन्तर अथवा असमानताएं दृष्टिगोचर होती हैं , उन्हें विभिन्नताएं कहते हैं । ये विभिन्नताएं बाह्य रूप में Morphological कार्यरूप में Physiological या मनो वैज्ञानिक आदि सभी प्रकार या किसी एक प्रकार के लक्षणों में हो सकती है । वास्तव में लैंगिक प्रजनन ( Sexual Reproduction ) से उत्पन्न सदस्यों में से समान जुड़वां सदस्यों ( Identical twins ) को छोड़कर अन्य कोई भी दो सदस्य एकदम समान नहीं होते हैं।


जीवों की तुलनात्मक रचना ( Comparative Anatomy ) 

समजातता ( Homology ) — ऐसे अंग जो विभिन्न कार्यों में उपयोग होने के कारण काफी असमान हो सकते हैं , लेकिन उसकी मूल संरचना एवं भ्रूणीय प्रक्रिया में समानता होती है , समजात अंग ( Homo logous Organs ) कहलाते हैं । इसी को अंगों की समजातता कहते हैं । समजात अंगों की रक्त एवं तंत्रिकीय संरचना में भी समजातता होती है । यह समजातता अपसारी जैव - विकास ( Divergent Evolution ) अर्थात् पूर्वज से विभिन्न दिशाओं में हुए जैव - विकास को प्रमाणित करती है ।

समरूपता ( Analogy ) - ऐसे अंग जो समान कार्यों में उपयोग होने के कारण समान दिखाई पड़ते हैं , लेकिन उनकी मूल संरचना एवं भ्रूणीय प्रक्रिया में भिन्नता पाई जाती है , समरूप अंग कहलाते हैं . यह समरूपता अभिसारी जैव - विकास ( Convergent Evolution ) अर्थात् भिन्न पूर्वजों से एक ही दिशा में हुए जैव - विकास को प्रमाणित करती है ।


अवशेषी अंगों से प्रमाण ( Vesti gial organs ) 

 विकसित जन्तुओं में पाए जाने वाले कुछ स्पष्ट , किन्तु अर्धविकसित एवं निष्क्रिय अनुपयोगी अंग या अंगों के भाग अवशेषी अंग कहलाते हैं . जैसे — शुतुर्मुर्ग के पंख , आस्ट्रेलिया के एमू एवं कैसोवरी , न्यूजीलैण्ड के कीवी , डोडो ( अब विलुप्त ) , मानव में एपेन्डिक्स , इनके पूर्वजों में पंख पूर्ण विकसित थे , लेकिन वातावरणीय प्रभाव के कारण एवं इनकी उपयोगिता समाप्त हो जाने के कारण उद्विकास के क्रम में क्रमिक लोप की दिशा में अवशेषी अंगों के रूप में हैं ।

संयोजक जातियों से प्रमाण ( Connecting Links )

वे जीव - जातियाँ जो स्वयं से कम विकसित जातियों तथा अपने से अधिक विकसित उच्च कोटि की जातियों की सीमा रेखा अर्थात् दोनों ही ( निम्न एवं उच्च ) जातियों के लक्षणों का सम्मिश्रण होता है । संयोजक जातियाँ कहलाती हैं . इनके द्वारा जैव - विकास का ठोस प्रमाण मिलता है ।

( 1 ) यूग्लीना - संघ - प्रोटोजोआ , क्लोरो फिलयुक्त , पादपों एवं जन्तुओं के संयोजक के रूप में होते हैं ।

( 2 ) प्रोटीरोस्पंजिया ( Proterospon gia ) - संघ - प्रोटोजोआ , एककोशिकीय सदस्य , इन्हीं के पूर्वजों से स्पंजों की उत्पत्ति ।

( 3 ) निओपिलाइना ( Neopilina ) संघ - मोलस्का , ऐनीलिडा के सदस्यों से अधिक विकसित अकशेरुकी जन्तु , मोलस्का एवं एनीलिडा के संयोजक के रूप में ।

 ( 4 ) पैरीपैटस ( Peripatus ) — संघ आर्थोपोडा , यह ऐनीलिडा एवं आर्थोपोडा के बीच का संयोजक है तथा एनीलिडा से आर्थोपोडा के उद्विकास को प्रमाणित करता है।

 ( 5 )आर्कियोप्टेरिक्स ( Archaeopt eryx ) — वर्तमान में विलुप्त , यह सरीसृपों एवं पक्षियों के बीच का संयोजक था । यह पक्षीवर्ग का जन्तु था , क्योंकि इसके पंख अधिक विकसित थे ।

 ( 6 ) प्रोटोथीरिया ( Prototheria ) - निम्नकोटि के स्तनधारियों का उपवर्ग , वर्तमान में इसकी तीन श्रेणियाँ हैं एकिडना ( Echidna ) , जैग्लोसस ( Zaglossus ) , iffarian ( Ornitho rhynchus ) - आस्ट्रेलिया एवं न्यूगिनी में पाई जाने वाले ये सरीसृपों एवं स्तनधारियों के संयोजक जन्तु हैं ।


जैव विकास से सम्बन्धित कुछ नियम

( 1 ) ऐलेन का नियम ( Allen's Rule ) -अधिकाधिक ठण्डे प्रदेशों में रहने वाली जन्तु - जातियों में शरीर के खुले भाग जैसे पूँछ , कान पाद आदि क्रमशः छोटे होते जाते हैं , ताकि इनके माध्यम से ताप की हानि कम हो ।

( 2 ) बर्जमान का नियम ( Bergmann's Rule ) -Fudatut ( Warm - blooded ) जन्तुओं में ठण्डे प्रदेशों में रहने वाले सदस्यों का शरीर अधिकाधिक बड़ा होता जाता है।

( 3 ) कोप का नियम ( Cope's Law ) जैव विकास के लम्बे इतिहास में जन्तुओं में शरीर के अधिकाधिक बड़े होते रहने की प्रवृत्ति रही है ।

( 4 ) डोलो का नियम ( Dollo's Law ) -जैव विकास के दौरान लक्षणों में जो प्रमुख भेद हो चुके हैं वे दुबारा नहीं हो सकते अर्थात् जैव विकास उल्टी दिशा में कभी नहीं बढ़ता ।

( 5 ) ग्लोगर का नियम ( Gloger's Law ) - गरम व नम प्रदेशों के नियततापी जन्तुओं में मिलैनिन रंगा अधिक होती है ।

 ( 6 ) गॉसी का नियम ( Gause's Law ) — ऐसी दो जीव जातियाँ जिनकी वातावरणीय आवश्यकताएँ बिल्कुल समान होती हैं , अनिश्चित काल तक एक ही स्थान पर नहीं बनी रह सकतीं ।


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