रीतिकाल क्या है। रीति का अर्थ, नामकरण, प्रमुख विशेषतायें (प्रवृत्तियां), कवि और रचनायें Various info Studytoper

Ashok Nayak
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रीतिकाल को उत्तर मध्यकाल के नाम से भी जाना जाता है। रीतिकाल का समय संवत 1700 - संवत 1900 तक माना जाता है। 

रीति का अर्थ क्या है | Riti Ka Arth Kya hai

रीति का अर्थ है प्रणाली , पद्धति , मार्ग , पंथ , शैली , लक्षण आदि । संस्कृत साहित्य में ' रीति ' का अर्थ होता है विशिष्ट पद रचना । सर्वप्रथम वामन ने इसे ' काव्य की आत्मा ' घोषित किया । यहाँ रीति को काव्य रचना की प्रणाली के रूप में ग्रहण करने की अपेक्षा प्रणाली के अनुसार काव्य रचना करना , रीति का अर्थ मान्य हुआ । यहाँ पर रीति का तात्पर्य लक्षण देते हुए या लक्षण को ध्यान में रखकर लिखे गए काव्य से है । इस प्रकार रीति काव्य वह काव्य है , जो लक्षण के आधार पर या उसको ध्यान में रखकर रचा जाता है । 


रीतिकाल का नामकरण कैसे हुआ | Ritikal ka nam karan

रीतिकाल का नामकरण : - आचार्य शुक्ल का काल - विभाजन तत्कालीन कृतियों में परिलक्षित प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर हुआ है , परंतु कुछ विद्वानों ने रीतिकाल को अगल - अलग नाम दिए हैं । 

सर्वप्रथम इस युग का नामकरण मिश्रबन्धुओं ने किया और इस काल को अलंकृत काल नाम दिया । 

आचार्य पं . विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल को ' शृंगार काल ' नाम से अभिहित किया और डॉ . भगीरथ मिश्र ने इसे ' रीति युग ' या अधिक से अधिक 'रीति - शृंगार युग ' माना है । इन नामों में से दो ही पक्ष प्रबल दिखते हैं- रीतिकाल और शृंगार काल । 

रीतिकाल से आशय हिन्दी साहित्य के उस काल से है , जिसमें निर्दिष्ट काव्य रीति या प्रणाली के अंतर्गत रचना करना प्रधान साहित्यिक प्रवृत्ति बन गई थी । 'रीति' , 'कवित्त रीति' एवं ' सुकवि रीति ' जैसे शब्दों का प्रयोग इस काल में बहुत होने लगा था। हो सकता है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने इसी कारण इस काल को रीतिकाल कहना उचित समझा हो । 

काव्य रीति के ग्रन्थों में काव्य - विवेचन करने का प्रयास किया जाता था । हिन्दी में जो काव्य - विवेचन इस काल में हुआ , उसमें इसके बहाने मौलिक रचना भी की गई है । यह प्रवृत्ति इस काल में प्रधान है , लेकिन इस काल की कविता प्रधानतः शृंगार रस की है । 

इसीलिए इस काल को शृंगार काल कहने की भी बात की जाती है । शृंगार ' और ' रीति ' यानी इस काल की कविता में वस्तु और इसका रूप एक - दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं । 

भक्ति मूलत : प्रेम ही है । रीतिकालीन प्रेम या शृंगार में धार्मिकता का आवेश क्रमशः क्षीण होता गया । भक्तिकाल का अलौकिक शृंगार रीतिकाल में आकर लौकिक शृंगार बन गया । इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि इस काल में अलौकिक प्रेम ( शृंगार ) , भक्ति या अन्य प्रकार की कविताएँ नहीं हुई । 

रीति का अवलंब लेकर भी कवियों ने सामान्य गृहस्थ जीवन के सीमित ही सही , मार्मिक चित्र खींचे हैं । 

प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध शृंगार , नीति की मुक्त रचनाएँ रीतिकाल में प्रभावशाली ढंग से फिर प्रवाहित होती दिखलाई पड़ती है । भक्तिकाल में भक्ति के आवेग के सामने यह छिप सी गई थी । 

भक्ति की कविताओं की परंपरा इस काल में समाप्त नहीं हुई , किंतु कबीर , सूर , जायसी , तुलसी , मीरा जैसे लोक - संग्रही मानवीय करुणा वाले उत्कृष्ट भक्त कवियों के सामने इस काल के भक्त कवि कहाँ ठहरते ? 

भक्ति इस काल की क्षीणमात्र काव्यधारा है , वह भी अपने को काव्य रीति में ढाल रही थी । यही कारण है कि इस काल के प्रारंभ में ही ऐसे अनेक कवि दिखलाई पड़ते हैं , जिनका विषय तो भक्ति है , किंतु लगते रीतिकाल के कवि हैं । 

ऐसे कवि वस्तुतः रीति धारा के ही कवि माने जाने चाहिए जैसे- केशव , गंग , सेनापति , पद्माकर आदि । इनकी भक्ति भी ठहरी हुई और एकरस है । 

इस काल में रीति से हटकर स्वच्छंद प्रेम काव्य भी रचा गया जिसमें काव्य - कौशल होते हुए भी प्रेम विशेषतः विरह की तीव्र व्यंजना है । ऐसे कवियों की रचनाओं पर सूफी कवियों के प्रेम की पीर ' का प्रभाव स्पष्ट है । घनानन्द इसी श्रेणी के कवि हैं । 

स्वच्छन्द प्रेम मार्ग पर चलकर रचना करने वाले अन्य कवि आलम , बोधा , ठाकुर हैं । इन बातों को ध्यान में रखते हुए रीतिकालीन काव्य को तीन धाराओं में विभाजित किया जाता है । 

1. रीतिबद्ध काव्य 

2 . रीतिमुक्त काव्य 

3. रीतिसिद्ध काव्य ।


रीतिकाल की प्रमुख विशेषतायें (प्रवृत्तियां) | Ritikal ki pramukh visheshata

रीतिकाल में अनेक विशेषतायें या प्रवृत्तियाँ मिलती हैं । इस काल में भक्ति , नीति , वैराग्य , वीरता के अनेक अच्छे कवि हुए हैं । 

  • रीतिकालीन काव्य अधिकांशतः दरबारों में लिखा गया , अत : दरबार की रुचि का ध्यान रखकर काव्य रचने वाले कवियों में शृंगारपरकता अनिवार्य थी । 
  • शृंगार की प्रधानता के कारण कुछ विद्वान इसे शृंगार काल कहना उचित समझते हैं , किंतु इस काल की प्रधान साहित्यिक प्रवृत्ति रीति ही थी , क्योंकि भूषण जैसे वीर रस के कवि ने भी रीतिग्रंथ की रचना की है । अतः रीति में वीर रस के कवि भूषण आ जाते हैं । शृंगार कहने से ऐसे कवि छूटकर अलग जा पड़ते हैं । 
  • रीतिकाल में मुक्तक काव्य की प्रधानता रही है । कवित्त , सवैया , दोहा , कुंडलियाँ- इस काल के बहुप्रयुक्त छन्द हैं । 
  • रीतिकाल की भाषा ब्रजभाषा थी । 
  • विषय वस्तु की दृष्टि से इस काल की कविता बहुत सीमित है । 
  • प्रधानतः शृंगार और उसमें भी नायिका भेद ही मिलता है , किंतु रीतिपरक सूक्तियाँ भी दिखलाई पड़ती हैं । रहीम , वृंद , गिरिधर की नीतिपरक रचनाएँ बहुत लोकप्रिय रहीं । इसी प्रकार भक्ति की रचनाएँ भी दिखलाई पड़ती हैं । 
  • रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध काव्य प्रधानतः दरबारी काव्य है । इस काव्य पर आश्रयदाताओं की रुचियों और कवियों की आश्रयदाताओं से पुरस्कार पाने की आशा का प्रभाव है । यह प्रधानतः मुक्तक काव्य है । 
  • रीतिमुक्त कवि दरबारी नहीं हैं । घनानंद जैसे कवि ने दरबार छोड़कर प्रेम की कविताएँ लिखीं हैं । इन कवियों ने सहज और स्वाभाविक प्रेम का चित्रण , विशेषतः विरह की मार्मिक मनोभूमियों का चित्रण किया है । इसीलिए इनकी कविताओं में सूफियों जैसी विरह की उत्कटता मिलती है । 
  • भारतीय काव्य शास्त्र की अवधारणा तथा अभिशप्त जीवन में सरसता का संचार करने की दृष्टि से रीतिकालीन कविता का विशेष महत्व है । 

ब्रजभाषा को पूर्ण उत्कर्ष तक ले जाने की दृष्टि से भी इस काल का महत्व असंदिग्ध है । इस काल में कला का परिष्कृत रूप देखने को मिलता है । सम्भवतः इसी कारण भक्तिकाल को यदि भावना का स्वर्णकाल कहा गया है तो रीतिकाल को हम कला का स्वर्णकाल कह सकते हैं । 

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